तरस रही हूँ . . .

मोम की तरह पूरी रात
दिल रोशनी से पिघलता रहा।
पर वो इस हसीन रात को
नहीं आये मेरे दिल में।
मैं जलती रही और
नीचे फिरसे जमती रही।
फिरसे उनके लिए जलने और
उनके दिलमें जमाने के लिए।।

हर रात का अब यही आलम है
वो निगाहें और वो दरवाजा है।
देखती रहते है निगाहें दरवाजे को
शायद वो आज की रात आ जाए।
इसलिए सज सबरकर बैठी हूँ
चाँद के दीदार करने के लिए।
और कब उनके स्पर्श से अपने
आपको इस रात में महका सकू।।

इस सुंदर यौवन शरीर का क्या करू
जो उन्हें आकर्षित नहीं कर सका।
लाख मुझे लोग रूप की रानी और
स्वर की कोकिला कहे पर।
ये सब अब मेरे किस काम का है
जो उन्हें अपनी तरफ लगा न सका।
इसलिए हर शाम से रात तक और
फिर पूरी रात जलती और जमती हूँ।।
ये मोहब्बत है या वियोग या
और कुछ हम आप इसे कहेंगे।।


Sanjay Jain

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