दूर गगन की छांव तले ,वो दिनकर अस्त होने को है ।
गोधूलि वेला में धूल उड़ाती धरा पर ढलती शाम आने को है।

लाल किरणें पत्तों पर गिर ताम्रवर्णी आभा फैला रही।
दूर क्षितिज पर धरा गगन को आलिंगनबद्ध हो रही।

तेरे संग बिताए पल छिन अक्षुण्ण अधतन रखे हैं।
ढलती शाम की बीती यादें तुझ को आज भी पुकारे हैं।

ओ मन मानस के हंस ,आजा सीप का मोती बन जा रे।
निर्मल जल के दर्पण में प्रियतम मुझ संग छब  दिखला जा रे।

हिम गिरी के आंचल की ढलती शाम स्वर्ण किरणें बिखरे हैं।
मरु भूमि की ढलती शाम रेतीले धोरों को सुनहला बनाये है।

ओ प्रकृति के ललाट पर बिखरी सोने सी किरणों।
ढलती शाम की  कोमल सी स्वर्णिल रश्मियों तुम्हे पुकारे।

तेरे मेरे  संग की गवाही देती वो दूर उदास सी ढलती शाम।
मुझकों तो मुझ सी ही लगती प्रिय वो सोन किरणो वाली शाम जो पुकारे।

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