न जाने कैसी ये प्यास है
हर तरफ हर ओर हर क्षण
बस फैला प्यास का संसार है
न जाने कैसी ये प्यास है।


जिसके लिये ये नदी उमड़ती
मिलने को दिन रात तड़पती
नदी को अपने सागर की आस है
सागर भी बेचैन बहुत हैं
बादल की उसे भी प्यास बहुत है
खारापन जिसे खलता आज है
न जाने कैसी ये प्यास है।


घर आई  जब  देखो डोली
नई नवेली दुल्हन बोली
आंखों में एक प्यास लिये
साजन की बाहों का हार लिये
कितने सपने इक साथ लिये
मन में स्वर्णिम जज्बात हैं
न जाने कैसी ये प्यास है।


आंखों की अश्रु धार है खारी
रेत सी फिसले जीवन गाड़ी
कतरा कतरा जीते जीते
मन व्याकुल हर रिश्ते झूठे
कुल की चिंता घेरे हरपल
संस्कार की बुझती आग है
न जाने कैसी ये प्यास है।


मिट्टी के  मिट्टी में मिलना
सांसों का खाता रिक्त ये होता
जिस्म से बांधे रूह के बंधन
जीना मरना कलरव रूदन
पाप पुण्य के कालचक्र हैं

हर कोई अपने में व्यस्त है
मिट्टी से उखड़ी जाती जडे हैं
जिस्म छोड़ के रूह पडीं हैं
मुक्ति की बस एक आस है
न जाने कैसी ये प्यास है।

Vani Agrwal

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