सुन मेरे बेटे,,बहुत कुछ कहना है तुझसे,,
अनकही ,जो अब तक अछूती रही
वही बात आज बतलाना चाहती हूँ
हृदय के तारों का राग सुनाना चाहती हूँ।
शादी के बाद जब पहली बार पता चला,,
माँ बनने की खबर से मन खिल गया।
कोई धड़कन कोई अंश कोई बीज पल रहा मेरे भीतर
जिसकी साँसे चलती मेरी साँसों के ही साथ,,
बेटे तुझे महसूस करती रहती,चुपचाप,,घण्टों तुझे सोचती।

पता नहीं किया कि लड़का हैं या लड़की,बस महसूस किया
कृष्ण सा स्वरूप था मन में, कृष्ण से ही बाल चाहती थी।
भागवत के पठन,, गीता के श्लोकों को तुझे खूब सुनाती थी।
तब ही यही आशा मन में पनपी  कि मेरा तारणहार होगा यह।
मेरा पालन हार, मेरा गरूर मेरा स्वाभिमान होगा तू बेटे।

वर्तमान के सारे कष्ट छोटे लगते थे जब तुझे सोचती थी बेटे।
फिर तुम बड़े हुए,,संस्कार ,गुण सब सहेजे तुम में।
सुंदर  भोले मुख में अपूर्व दीप्ती दिखती थी मुझे। 
ठान लिया था तब ही तुम्हे ऊँचा अफसर बनाना है।
कठोर मेहनत,समर्पण ,लक्ष्य साधना का पथ दिखाना हैं।

इसीलिए अक्सर सख्त भी हो जाती कई दफा,,
कई बार डांट भी दिया तुम्हें,, ताकि तुम लापरवाही न करो।
यकीनन मेरा उद्देश्य पवित्र था,,तुम्हे ठेस पहुचाँना  नहीं था,,।

विशेष परवरिश,अनुष्ठान की तरह पवित्र भाव से की थी।
बहुत व्यस्त होने से कम समय दे पाई तुम्हें।

पर जो भी किया तुम्हारी हितचिंता में किया
फिर तुम शहर से बाहर पढ़ने गए,,
ऐसा लगा मेरा शक्ति पुंज दूर चला गया मुझसे।
चार वर्ष दूर रही  तो बेटे की कीमत पता चली।
तुमने दूर रहकर भी बहुत सी बातें सिखा दी मुझे।
बचपन के पलछिन याद आते रहे मुझे,,
दूर होकर भी मन के और करीब आते गए तुम बेटे।
बहुत अफसोस  हुआ कि कभी कभी व्यर्थ ही  नाराज ही उठती थी
छोटी छोटी  बातों को तूल देती थी।
बहुत गुस्सा आया खुद परकि ,,काश थोड़ा कम सख्त रहती,,
मेरी आशा लता लहलहाई,,जब तुम पढ़लिख कर ,,नौकरी लगे।
बहुत खुशी की अनुभूति हुई अपनी अनुकृति को ,,,
फलते फूलते देख कर,,सुकून मिला माँ के मन को।
बस यही दुआ हैं कि खूब तरक्की करो,
मेरी भावनाओं  को समझो,,मेरी  सोच को जानो।

आज भी तुम बहुत दूर हो मुझसे ,,मगर
मेरे मन के बहुत करीब हो।
तुम्हारे बचपन की बातें, शरारतें दोहराती रहती हूँ मनमें

कब जगें अपने आप,क्या खाया नहीं खाया
ऑफिस के काम की थकान,,संघर्ष,
सफलता  ,भूख , कैसे अकेले ही सहते होंगे।
मेरी दिन चर्या का हिस्सा हैं तुम्हारी दिनचर्या को सोचना।
कब क्या किया होगा,तुम्हारे पल छिन का हिसाब,,
लगाती रहती हूँ बेटे,,,रोज ,,हर पहर,,हर दिन ,,हर रात।
मन में टीस रहती हैं तुम्हारी पसन्द की चीज बनाती हूँ जब
कौर गले में अटक सा जाता हैं,,
आँखे नम हो जाती हैं,,
फिर दिल को दिलासा  देती हूँ यह सोच कर,,
बहुत से बेटे जाते हैं शहर से बाहर,,कमाने खाने,,
उनकी ही तरह मुझे भी मजबूत बनना है,, क्योंकि
मैं मजबूत होऊँगी तो तुम भी मजबूत रहोगे।
आखिर मेरे ही दिल का टुकड़ा हैं तो,,
तुझे भी खूब खुश रहना है आगे बढ़ना हैं।
जीवन की चुनोतियाँ  जीतनी हैं,, हर हाल में मुस्कराना ही हैं।
शीर्षक,,एक माँ की अभिव्यक्ति।
स्वरचित।

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