रिमझिम-रिमझिम बरसी बदरी,
हमने निकाल ली अपनी छतरी,
बरसात का मौसम आया,
अवनी का मन हर्षाया,
इतनी निसाघ के बाद,
आखिर मेघों ने फिर खूब बरसाया।
अब थोड़ी शीत आ गयी है,
ये बारिश सबको भा गयी है,
जो वृक्ष ग्रीष्म से हुये जरा,
वो पाकर नीर हुये हरा,
हर ओर दिखता हरियाली का मंजर,
कहीं नहीं दिखता अब बंजर।
क्या ये थी वसुंधरा की बेचैनी?
या था मेघों का रहम,
क्या प्रेम में दोनों बंधे थे?
या था केवल वहम।

रिमझिम-रिमझिम बरसी बदरी,
हमने निकाल ली अपनी छतरी।

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