शहर की बदली आबो-हवा देख रहा हूं ,
बीमारों की कतारें हाथों में दवा देख रहा हूं।
मुर्दा खोर इंसानों से मिलना है तो देखिए ये बस्ती,
कितने इंसानों को पूछते मैं रास्ता देख रहा हूं।
खुशियों के आंसू गम के आंसू देख रहा हूं ,
कितने लबों पे अभी उसका चर्चा देख रहा हूं।
इंसानों की लुटती दुनियां जंगली बस्ती देख रहा हूं,
कदम कदम पर पैसों को रुपए बनते देख रहा हूं।
आनी जानी दुनिया में बैठा तमाशा देख रहा हूं,
सोच में हूं हकीकत देख रहा हूं या सपना देख रहा हूं।
बेरोजगारों की बस्ती में भुखे सियार कितने हैं ,
मिट्टी के इंसानों को शाहरुख खाते मुर्दा देख रहा हूं।
शाहरुख मोईन
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