ये विडम्बना ही है
कि जिस पिता की उंगली थाम
जीवन की पथरीली राहें सहज बनी
जिस के साथ बेफिक्र चले कभी डरे नही
एक मां की पीड़ा . . .
जिसने जीवन जीने के मन्त्र दिये
आज उसी पिता का कांपता हुआ
हाँथ थामने को हमारे पास एक पल के
लिए भी समय नही है ।

ये विडम्बना ही है
कि जिस पिता ने कठिन समय में भी
ये महसूस नही होने दिया कभी भी
कि वो किसी परेशानी में हैं और हमे
समझते थे जिसे अपना . . .
सारी सुविधायें ज्यों की त्यों मिली
उसी पिता के लिए आज हमारे पास
खर्च करने को थोड़े से पैसे भी नही हैं।
ये बिडंबना ही है

जिस पिता ने अपनी हड्डियां गला कर
अपने बच्चे का शरीर बनाया
स्वयं को जला कर अपने बच्चों की
राहें रोशन की और मंजिल तक पहुँचाया
दोस्त कहाँ सच्चे मिलते है . . .
आज उसी पिता की आंखों की रोशनी
क्या कम हुई हम एक दिया भी न बन सके
ये और कुछ नही
एक विडम्बना ही है।


Vani agarwal

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