हर रोज क्यों लोग शादाब सज्र काटते है,
इस दौर में लोग घर में भी घर काटते है।
बदजुवानों का बढ़ गया रुतबा भी इस क़द्र,
भाई भी अब सगे भाई का सर काटते है।

अब तो उम्मीद मत रख, मजबुन ऐ अख़बार से,
झूठी अफ़वाह फैलाने में, सच्ची ख़बर काटते है।

दौरे मुफलिसी में जो बिकते है शफ्फाफ बदन,
शहंशाहों को तो लालो गौहर काटते है।

मुश्किल से दिन रात जागकर काटते है,
परदेस में कैसे हम वक्त अहले नज़र काटते है।
सैलाब का है खतरा, तमाम बस्तियों को मगर,
बहती नदी से लोग अक्सर नहर काटते है।

क्यों समझे है हमेशा दुनियां हमको कमतर,
अपने हुनर से हम ज़हर से ज़हर काटते है।

अपने हालात पे अमीरे शहर भी तमाम रात जागकर काटते है,
समुंद्र अपनी जद में है, दरिया ही घर काटते है।

कुदरत की कारीगरी ने सबका भ्रम तोड़ा है,
लोहे से लोहा हम पत्थर से पत्थर काटते है।


शाहरुख मोईन

1 टिप्पणी:

इस पोस्ट पर साझा करें

| Designed by Techie Desk