शीर्षक- फिर गांव याद आया !

रेलगाड़ी से उतरते ही मैंने स्टेशन देखा।
काफी कुछ बदल चुका है यहां,,
वहां पर पहले एक चाय की दुकान थी,
लेकिन अब वह नहीं दिख रही है।

कुछ लोगों से पूछा ,
"भैया सुनो वहां जो दुकान थी दिखाई नहीं दे रही है"।
जी कौन सी दुकान?

अरे! भाई साहब अभी की बात नहीं कर रहा हूं, ठीक दस वर्ष पहले की बात है।
अच्छा, तो पता नहीं हम तो अभी  महज चार साल से इस शहर में रहते हैं।
अच्छा, ठीक है भाई।

एक बुजुर्ग व्यक्ति दिखाई दिया, शायद ये कुछ बता दे।
दादा जी क्या आप ये बता सकते हैं?
कि यहां दस वर्ष पहले एक दुकान थी, अब नहीं दिख रही है, दरअसल दुकान में एक लड़का रहता था।
जिसका नाम राजन था वो मेरा अच्छा मित्र हुआ करता था, इसलिए कृपया आप हमें जानकारी दें तो आपका आभार होगा।

बेटा!
मैं जानता था उस लड़के को और दुकान को भी क्योंकि मुझे चालीस साल हो गए हैं इस शहर में रहते।
और वो हादसा कैसे भूल सकता हूं मैं,
 अभी तक दर्द बरकरार है। बेचारा राजन!
क्या हुआ था? कौन सा हादसा?
जरा बताइए।

बेटा आठ साल पहले की बात है, मै स्टेशन में घूम रहा था कि देखा अचानक राजन दुकान पर बैठे बैठे ही रेलगाड़ी के आगे छलांग लगा दी।
बेचारे की दर्दनाक मौत हो गई,जब तक रेलगाड़ी रुकती उसकी मौत हो चुकी थी।
बड़ा भला आदमी था राजन।


फिर उसकी मौत के बाद दुकान तो बिखर गयी। और धीरे धीरे बन्द हो गई।
स्टेशन में ही एक परिचित आदमी से पता चला कि राजन अपने चल फिर न पाने के कारण परेशान रहता था।
क्योंकि उसको लकवा नामक बिमारी ने जकड़ लिया था,जिससे बेचारे का एक  पैर काम नहीं करता था।
लेकिन आत्महत्या किसी चीज का समाधान नहीं हो सकता।

चाहे हमें कोई जानलेवा बिमारी ही क्यों न हो जाये, हमे डटकर उसका मुकाबला करना चाहिए। और कोई बिमारी मनुष्य की इच्छा शक्ति से बड़ी नहीं होती है।

इसलिए,,,,

जीने  की  आस  रखो,
खुशियों का एहसास रखो,
फतेह कर जाओगे जग को,
बस स्वयं में आत्मविश्वास रखो।

एक तांगे मे बैठकर ज्यों ही आगे बढा,एक मित्र ने फिर रोक लिया, वो मित्र मेरा सहपाठी था, जो काफी होशियार और बुद्धिमान था लेकिन पैसे के अभाव और घर की जिम्मेदारियों ने उसे जकड़कर घर में रख दिया।
फिर वह आगे चाहकर भी कुछ कर नहीं पाया, लेकिन उसके चेहरे पर ऐसी मुस्कान आज से पहले किसी ने नहीं देखी होगी।

मुझे भी ताज्जुब हो रहा था! कि जो मित्र विदा देते वक्त रूठ गया था और मुझसे बडेशहर न जाने की हठ कर रहा था।

आज वो इस प्रकार आमोद से भर जायेगा, मुझे अंदाजा नहीं था!
तांगे में उसे भी बिठा लिया है और साथ ही चल रहा है, कह रहा है तेरे साथ दो, तीन दिन रहूंगा तेरे घर में और खूब सारी बातें करूंगा।


मैंने भी उसकी बातों पर हंसकर कहा चलो मेरे ही यहां रहना तुम भी।


कुछ ही घंटों बाद मैं अपने गांव की सीमा में था, और मेरा सहपाठी चन्दन भी साथ था।
गांव की सीमा में ही मैंने तांगा रुकवा दिया, कहा "भइया आप यहीं उतार दें हमें"।
इतने में हम दोनों उतर गये और तांगा वाला चला गया।
मैंने गांव की मिट्टी को हाथ में लेकर माथे से लगा लिया और सोचने लगा पुरानी बातें,,
जब हम छोटे थे इसी मिट्टी में खेलते थे और कभी कभी गिर जाते थे चोट लगती थी तब घाव मे इसी मिट्टी को लगा लेते थे।

ये मिट्टी घाव से रुधिर का बहना बन्द कर देती थी और धीरे धीरे घाव सही हो जाता था,,
ये ठीक वैसा ही था जैसे एक मां अपने बच्चे को शरारत करने पर मारती है, और फिर खुद ही उसे फुसलाती है और हंसाती है।

ओह!उन दिनों को याद करके मेरी आंखें नम थीं। मिट्टी को मुट्ठी में लिए न जाने क्या क्या सोचता रहा।
चन्दन मेरी हरकतों को बड़े ध्यान से देख रहा था,,
और कहने लगा यार, तुम इतना प्रेम करते हो गांव से और यहां की मिट्टी से तो यही क्यों नहीं रहते?
मैंने बहुत ही शालीनता से जवाब दिया कि यहां रहना तो चाहता हूं लेकिन इससे गुजर बसर नहीं हो सकता,चार पैसे की ललक में मैं बड़े शहर में रहता हूं और एक नौकरी करता हूं, अगर अपने घर का विकास करना है और मां बाप को अच्छी जिंदगी देना है , तो यार बड़े शहर में मुझे रहना पड़ेगा।
इसलिए रहता हूं और छुट्टियों के अभाव में जल्दी नहीं आ पाता हूं।
बातें करते करते न जाने कब घर पहुंच गए,
पता ही नहीं चला।

मां दरवाजे पर खड़ी ऐसे मुस्कुरायी जैसे दुनिया की सबसे बड़ी खुशी मिली हो,
और ये सही भी है कि किस मां को खुशी नहीं होगी जिसका बेटा बड़े शहर से बहुत सालों बाद आया  हो।
गांव में खूब घूम रहा था और खूब खेल रहा था।
लेकिन पता नहीं कब छुट्टियां खत्म हो गयीं, और एक माह बीत गए।
और आखिर वो दिन आ ही गया जब गांव से मुझे जाना था,

पूरा घर मायूस था और मैं भी उदास था, लेकिन क्या करते बड़े शहर जाना पड़ेगा ही, अपनों का पेट जो भरना है।
रोज जिन चेहरों पर मुस्कान और हंसी रहती थी आज वो  चेहरे उदासी से तर बतर हैं,
तांगा आ चुका है, स्टेशन तक मुझे इसी में जाना होगा।
आज इतनी धीरे आवाज में सब बोल रहे हैं,, फिर कब आओगे!
मैं उन्हें कुछ बता नहीं सकता कि कब आऊंगा, ये तो छुट्टी पर निर्भर करेगा कि कब मिलेगी।
उनकी वह  धीमी और वेदना से परिपूर्ण आवाज मेरे हृदय को चीर रही थी!
अन्दर ही अन्दर मैं रो रहा था, लेकिन अब कर भी क्या सकते हैं।
और मेरा मित्र चन्दन जो मेरे साथ ही आया था,वह एक सप्ताह तक ही रहा मेरे साथ, फिर उसे किसी काम से जाना पड़ा था।

इसलिए अब स्टेशन तक तो अकेले ही जाऊंगा।
मैं तांगे में बैठ चुका था, सब मुझे ही निहार रहे थे, काफी देर तक निहारते रहे और फिर घर चले गए।
और पहुंचते ही मैंने पीसीओ से फोन करके सबको खबर कर दी थी।
तो पता चला मां ज्वर से तप रही है,
कह रहे हैं तुम्हारे जाने के बाद से कुछ खाया पिया नहीं है, और ज्वर आ जाने से और भी कमजोर हो गई है।
इतना सुनते ही मेरे आंखों छलक उठीं,
एक पल के लिए यों लगा सब कुछ छोड़ कर चला जाऊं गांव, नहीं करनी कोई नौकरी।
लेकिन फिर लोगों ने समझाया।
और फिर मैं अपने कार्य में लग रहा, हालांकि समय समय पर मां की हालत और घर के लोगों की खबर लेता रहता हूं।


इस नौकरी ने मुझे सबसे जुदा कर दिया,
मेरे गांव से,मेरी मां से और मेरे परिवार वालों से।
अब कभी कभी पुरानी बीती हुई यादों के सहारे छोड़ा आंसू बहा लेता हूं,
इससे मन हल्का हो जाता है और छुट्टियों के लिए कोशिश आज भी निरंतर जारी है।
क्योंकि फिर से गांव याद आ रहा था।
आखिर,,
फिर गांव याद आया!



नोट-आशा करता हूं कहानी को पढ़कर आप कई बार भावनात्मक हो गये होंगे,
और कहानी पढ़ने में अच्छी लगी हो या आपके हृदय को स्पर्श करती हो तो सबको भेजें और पढायें।
धन्यवाद।।

Anurag Maurya

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