प्रेम- तलब मिटती नहीं, अद्भुत है यह रोग।
साजन भी मिलता नहीं, कैसा यह संयोग।।

सदियों से लगता रहा, प्रेम- तलब का रोग।
अर्ज  हमारी  है यही, बने मिलन का योग।।


प्रेम- तलब  पागल  करे, ऐसी इसकी रीति।
इसके बिन बेकार सब, सबसे अच्छी प्रीति।।


प्रेम- तलब उर में जगी, मिलने की ले आस।
दूर  प्रिये  मुझसे  रही, कैसे  बुझती  प्यास।।


प्रेम- तलब जिसको लगी, समझो उसे फकीर।
सीख   हमें   ये   दे   गए, मीरा   संग  कबीर।।


सब कुछ प्रियतम का हुआ, मेरा क्या अधिकार?
प्रेम-  तलब    मेरी    हुई,  छूटा   यह    संसार।।


Pradeep Kumar Poddar

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