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जुबान होते हुए भी बेजुबान थी मैं। वक़्त बीतता चला गया और अब हम गूंगे के साथ-साथ बहरे हो चले थे।
हालांकि उम्र अभी साठ की नही हुई थी मगर दांत भी झड़ चुके थे। खुद की जमीरो के बोझ के तले जो धीरे-धीरे झुक रहे थे क्योंकि जरूरते हर दरमियाँ बढ़ रही थी।
अब अंग के भुजाओं भी थक चुके थे आराम-आराम चीला रहे थे। बदन में सुई की भांति ज़ख्म कोहराम मचा रहे थे। मगर ज़रूरत को क्या ख़बर थी?
हमारी लाचारी की। विपदा-आपदा अति गई मुश्किलें बढ़ती रही और साथ ही जरुरते भी और इस प्रकार मनुष्य का जन्म हुआ " जन्म होने के बाद भी"।
नॉट :- बहुत ही गंभीर बिंदुओं पर यह रचना लिखा गया है। "किस प्रकार जरूरतों को पूर्ति करते-करते मनुष्य मर जाता है,और फिर से जन्म लेता है मगर जरूरते बढ़ते जाती हैं और अंत मे गूंगे बहरे के साथ-साथ लाचार और बेवस जन्म होता है, बुढापा युग।