याद आते हैं आज भी
वो बचपन के दिन हमको
जब बडे वृक्ष की शाखा पर
हम मिल कर झूला करते थे।

एक शाखा से दूसरी पर
दूरी अपनी तय करते थे।
बैठ कदम्ब के वृक्ष पर हम भी
मोहन सा इतराते थे।
पढ़े - समझते थे जिसे अपना . . .
मुरली न थी हाँथों में तो
हाँथ बन्सुरी बनते थे।
आज मगर दिल चाह के भी
न उस पल को जी पाता है

उससे मिले हुये तो अब
बरसों ही लग जाते हैं
सुना वहां अब कोई भी
झूला नही झुलाता है
पढ़े - लज्जा . . .
कोई परिंदा उस पर अपना
घर भी नही बनाता है
मन आया क्यूँ न मैं ही
उससे मिलने को जाऊँ

एक बार फ़िर से अपना
बचपन वापस जी आऊं
लेकिन देख के दृश्य वहां का
आंख मेरी भर आई है
पढ़े - एक मां की पीड़ा . . .
न ही अब वो आंगन है और
न कद्ंब की छाही हैं
वो वृक्ष हमारा उजड़ गया
बचपन मेरा बिखर गया।

अब न शाखों पर झूले हैं
और न ही कदम्ब ही फूले हैं
एक उदासी छाई है
याद की बदरी छाई है
पढ़े - दोस्त कहाँ सच्चे मिलते है . . .
मित्रों इतनी बात सुनो
वृक्ष विहीन न धरा करो
बचपन फ़िर से जीने दो
शाखों के झूले पड़ने दो।


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