विधा-पद्यलेखन🌷
मुखौटा तो सृजन है मानव का ही
कला की परकाष्ठा
संस्कृति की श्रेष्ठता

विभिन्न पात्रों को जीने की आतुरता
एक चेहरे पर चेहरा ओढ़ने की विधा
वास्तव में अद्भुत अनुपम
मंच की आवश्यकता

कब जरूरत बन गई इंसानी स्वार्थ की
मुखौटा अब नहीं रहा क्या
प्रदर्शन हेतु कला की
नव चेहरे रोज लगाते

ना जाने कितनी बार
स्वयं को छुपाते 
अपने ही हकीकत को,,
खुद से लोगों से

आत्मसात करने से घबराते 
खेलते हैं ये खेल रोज
हर दिन साथ कितनों के
बार बार हर बार

भूल के वास्तविक स्वरूप को
खुद को आवृत करते
ओढ़ते हैं नकलीपन के जामे
गुम करके हकीकत के मायने

शर्मसार हो जाती है प्रकृति भी
देख देख आवरण इंसान के
लालच लोभ आत्महित हेतु
सारे मूल्यों के अग्निदान दे

सुना करती थी परी कथाओं
छद्मवेशधारियों को
सामना करती हूं रोज अब
ऐसे किरदारधारियों को

स्वयं से स्वयं का साक्षात्कार
कर ना पाए जो जीवधारी
ढोते हैं ताउम्र चेहरों पर पर्दा
होके नकाबपोशधारी

Geeta Kumari

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