हर रोज क्यों लोग शादाब सजर काटते हैं,
 इस दौर में लोग घर में ही घर काटते हैं।

बदजुबानो का बढ़ गया रुतबा भी इस क़दर,
भाई भी अब सगे भाई का सर काटते है।

अब तो उम्मीद मत रख मजबुन ऐ अख़बार से,
झूठी अफ़वाह फैलाने में अच्छी ख़बर काटते हैं।

दौरे मुफलिसी में जो बिकते हैं शफ्फाफ बदन,
शहंशाहों को तो लालोओ गौहर काटते हैं।

मुश्किल से दिन रात जागकर काटते हैं,
प्रदेश में कैसे हम वक्त अहले नज़र काटते हैं।

सैलाब का है खतरा तमाम बस्तियों को मगर,
बहती नदी से लोग अक्सर नहर काटते हैं।

क्यों समझे हैं हमेशा दुनियां हमको कमतर,
अपने हुनर से हम ज़हर से ज़हर काटते हैं।

अपने हालात पर अमीरे शहर भी तमाम रात जागकर काटते हैं,
समुंद्र अपनी कद में है दरिया ही घर काटते हैं।

कुदरत की कारीगरी ने सबका भरम तोरा है,
लोहे से लोहा हम पत्थर से पत्थर काटते हैं।

Vani Agrawal

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