कार्तिक पूर्णिमा की शीतल रात्री है
दूधिया सी चाँदनी बिख़र रही है
मंद मंद पवन मुस्कुरा रही है
हरश्रिंगार की भीनी ख़ुशबू लिए

देखो बिखरी पड़ी जो धरा पर शेफ़ाली
चादर बन कर बिछ रही है
उपवन है यह एक सदाबहार
अकल्पनीय मनोरम , अतुलनीय रमणीय


देखो चकवा चकोर भी हैं बैठे 
चाँद की श्वेतिमा का रस पी रहे 
कोई और भी है उपवन में 
इस कल्पतरु के प्रांगण में


ध्यानमग्न , किसी गहन चिंतन में
कि उसे आस पास का भान नहीं 
कि कोई आया , कोई गया , उसे ज्ञान नहीं


की छूट गई हाँथो से बंसी 
और नैनों में नमी सी आ गई है
और चल पड़ा हृदय है विरह के साथ 
और फिर याद किसी की आ गई है

हाँ याद किसी की आ गई है
हाँ वृंदावन याद आया
हाँ गोपियाँ भी याद आयी 
और हाँ याद आयी राधा

मन में रास के गीत बजने लगे
पैर स्वतः थिरकने लगे
किंचित हृदय में कुछ उथल पुथल हुई
कृष्ण राधा संग बहने लगे 

कि अचानक एक स्पर्श कंधे को मिला
अचकाचये हर्षाए विस्माये से पलटे द्वारिकाधीश
अनायास मुख से निकल चुका था “ राधे”
सामने खड़ी थी रुकमिनी

कि खड़ी थी सामने रुकमिनी
कि निरुत्तर  मौन साधे अकबक़ये से 
खड़े रह गए द्वारिकाधीस

आँख जो कि छलक पड़ेगी
भाव ऐसे कि बिफर पड़ेंगे
रुकमिनी सब समझ चुकी थी
पर प्रेम देखो रुकमिनी का 

सब्र ना छूटा है
विश्वाश अभी बाक़ी है
कोई धारा नही फूटी है
ना शब्द धारा, ना अश्रु धारा

चकवा चकवी अब भी चुप हैं
मंद पवन अब भी बह रही है
शेफ़ाली अब भी सुगंध फैला रही हाई
दुधिया चाँदनी अब भी बिखर रही है

बस एक अलग सी हलचल का संचालन हुआ है
एक मीठा सा, सब्र भरा, स्वर आया है
द्वारिकाधीश , अब चलिए 
ठंड बढ़ रही है, विश्राम कीजिए।।
Reeta Poddar

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