नोट-: इस कहानी में किसी भी विशेष जाति के और धर्म के लोगों को निशाना नहीं बनाया गया है, अपितु जाति व्यवस्था छुआ-छूत को बताया गया है,कि कैसे एक बच्चो के साथ जाति भेदभाव होता है और कहीं कहीं पर बहुत ज्यादा जाति भेदभाव होता है अन्य लोगों के साथ।

और इस कहानी में भी यही स्थिति को दिखाया गया है, और इसका परिणाम दिखाया गया है कि इस जाति व्यवस्था ने कई परिवारों को उजाड़ दिया।
इस कहानी से अगर किसी की भावनाये आहत होती हैं तो इस पर मै क्षमा प्रार्थी हूं।

मैं आशा करता हूं कि आप पूरी कहानी को पढ़ोगे

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एक दुःखी बच्चे की कहानी - 1
एक गुलशनपुर नाम का गांव था,उस गांव की आबादी करीब बारह हजार के आसपास थी।
वहां सभी जातियों , धर्मों के लोग रहते थे,जो अपना नित्य तरकारी और फलो के व्यापार से गुजर बसर करते थे।वो मौसम के अनुसार ही भिन्न-भिन्न प्रकार के  फल सब्जियां उगाया करते थे,
जैसे गर्मी में तरबूज, ककड़ी,खीरा आदि प्रकार की चीजो का व्यापार करते थे।
उस गांव में बहुत बच्चे  थे,

जिनकी किलकारियो से पूरा गांव गूंज उठता था, वो जब खेलते थे बड़ा ही मनमोहक दृश्य होता था , यों लगता था कि बच्चों के साथ प्रकृति स्वयं खेल रही हो ,बड़ा ही हरा- भरा गांव था, जिस प्रकार का नाम था गुलशनपुर वैसी ही हरियाली थी वहां , वहां के लोग प्राकृतिक जीवन जीते थे ,
लेकिन पता नहीं जातिवाद और ऊंच नीच की वहां ऐसी आग लगी जो पूरे गांव को वीरान कर गयी।

गुलशनपुर राजस्थानी भूमि पर बसा था,
गांव के सरपंच का इकलौता बेटा था जिसकी उम्र लगभग ८ वर्ष थी,उसे न  कहीं खेलने जाने  दिया जाता था और न ही किसी बच्चे से मिलने दिया जाता था,
क्योंकि सरपंच जी कहते थे कि हम उच्च कुल वाले लोग हैं छोटे कुल वाले लोगों से नहीं मिलते ,दूर से ही मिलते हैं।

लेकिन जब कभी सरपंच गजेन्द्र का बेटा कहता कि पिता जी बाहर बहुत से लड़के खेल रहे हैं मैं भी खेल आऊं,तो गजेन्द्र जी उसे स्वयं से खेलने को कहते।
आखिर ये तो नाइंसाफी थी।

भला कोई बच्चा स्वयं से कैसे खेले?
बार बार जिद करने पर भी उनको तरस न आता और वे अपनी ऊंचाई में झूर रहते, और ये कह देते कि छोटे लोगों के साथ खेलकर तुम हमारा नाम खराब कर दो, हम गांव के सरपंच हैं कोई आम आदमी नहीं और हम ऊंच जाति से भी हैं इसलिए तुम घर में ही खेलों।

अगर तुम सबके साथ खेलोगे तो लोग क्या कहेंगे कि सरपंच का बेटा वहां सब लोगों के साथ खेल रहा है, और इस तरह से ये लोग हमारे सर पर नाचने लगेंगे, इसलिए तुम वहां नहीं जाओगे।

लेकिन वो बेचारा छोटा बच्चा वो क्या जाने ऊंच नीच ,छोटा बड़ा, छुआ-छूत ?
बच्चा तो खेल और इंसानियत को ही जानता है,
क्योंकि बच्चा उस उम्र में जाति और धर्म , ऊंच नीच के बारे में शून्य के बराबर जानता है, फिर धीरे धीरे जाति धर्म और ऊंच नीच का जहर घोल दिया जाता है,
यह जहर कुछ देख सुनकर और कुछ लोगों से तथा कुछ घर से घोला जाता है।

जब कोई बच्चा पैदा होता है तो वह केवल इंसान होता है , बाद में लोग धर्म जाति का ठप्पा लगा देते हैं , और वह यह जानता है हम सब एक जैसे दिखते हैं इसलिए ये सब अपने हैं। लगभग आठ दस साल तक बच्चा धर्म और जाति ,ऊंच नीच सब चीजों से अनभिज्ञ होता है।

कुछ बड़ा होने पर जब धार्मिक और जातिगत जहर घुल जाता है तो वह स्वयं के  धर्म और जाति को महान तथा अन्य लोगों को जानवर या फिर तुच्छ समझने लगता है।
लेकिन सबसे बड़ा धर्म इंसानियत ही होता है ,
इसमें सभी हर स्थिति में हर वक्त हमेशा के लिए केवल मनुष्य ही होते हैं ।
एक दुःखी बच्चे की कहानी - 2

Anurag Maurya

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