"लखिया ओ लखिया कहां मर गयी ,
जल्दी से खाना परोस भूख लगी है ।"
जमुना काकी ने अपनी बेटी को पुकारा ।
"आई अम्मा काहे इतना चिल्ला रही हो,
ठकुराइन के यहाँ काम करते-करते थक गयी अब जाके चैन मिला कि तू चिल्ला पड़ी ।"
हाथ में खाने की थाल लेकर आती लखिया ने अपनी अम्मा से कहा ।
"अरे तो क्या हुआ हमारी ठकुराईन भली औरत है मदद कर दिया करो ।"
हां अम्मा तभी तो कर देती काम ।
पता है अम्मा ठाकुर साहब हमें आज दस रूपये थमाए और कहा "जाओ कुछ खा लेना मेरी बेटी जैसी हो ।"
ये सुनकर जमुना भी खुश हो गयी ।
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जमुना काकी छोटी जाति की विधवा थी एक ही बेटी जमुना उसका सहारा थी । सारे गांव का काम खुशी-खुशी मां बेटी किया करती थी जो कुछ मिल जाता उसी से दोनों अपना जीवन चलाते ।
यूं तो जमुना को पढने का बड़ा शौक था ।मगर उसको पढाता कौन छोटी जाति की ठहरी ।
और सबका काम करती थी समय भी कहां मिलता उसको ।
जिनको भी काम की जरूरत होती लखिया को बुलावा भेजते । फौरन वह आती और काम चटपट निबटा देती । चौदह साल की लखिया बहुत ही भोली भाली थी ।
बापू के मरने के बाद लखिया अम्मा का ख्याल रखने लगी थी ।
ठाकुर के हवेली से जब भी बुलावा आता लखिया दिल लगाकर काम करती । जब भी ठाकुर साहब उसके पीठ थपथपाते उसे अब्बा का प्यार नजर आता उसमें ।
एक दिन लखिया अम्मा से बोली- "अम्मा मुझे भी पढना है पढाओ ना अम्मा ।"
अम्मा दुखी मन से बोली "गरीबों के ऐसे नसीब कहां ऊंचा सपना मत देख लखिया ।
वर्ना एक दिन रोना पड़ेगा ।" लखिया की आँखें डबडबा गयी उसे जात पात समझ न आता सबको समान समझती । सारे गांव का काम करती थी ।

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कोई कुछ दे फिर भी न दे फिर भी खुश रहती । देखते-देखते लखिया सोलह साल की हो गयी ।
सांवली सलोनी सी गजब की आभा थी उसके चेहरे पर । खूबसूरत तो नहीं थी फिर भी अजीब सा कशिश था उसमें जिसे देखकर प्यार आता सबको।
एक बार ठकुराईन की तबियत खराब हो गई तो सुबह-शाम रोज उसकी देखभाल करती ।
ठुकराईन बेटी तू तो मेरे लिए बेटी से भी बढ़कर है कितनी सेवा करती है मेरी सदा खुश रहो बेटी ।
ये सुनकर लखिया खुश हो जाती ।
उसे सबको खुश देखना अच्छा लगता वह सोचती किसी को दर्द नही हो सभी खुश रहे ।
जब ठकुराईन ठीक हो गयी तो लखिया को नये कपड़े बनवा दिए ।
लखिया खुश हो गयी । गांव में दीपावली का त्यौहार था । इसलिए लखिया को ठकुराईन ने बुलाया था ।
जमुना काकी ने जब लखिया को देखा तो देखती रह गई ।
ठकुराईन के दिए कपड़े पहनकर लखिया खिल गयी थी । किसी की नजर न लगे मेरी लखिया को जमुना काकी ने लखिया की नजर उतारी तो लखिया बोली "अम्मा काली कलोटी हूँ क्या नजर लगेगी ।
अरे तू सांवली है काली नहीं है अब जा जल्दी से हवेली मालकिन की मदद करके आ जाना ।"

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जब लखिया हवेली जाती है तो गेस्ट रूम में एक खूबसूरत से लड़के को देखकर ठिठक जाती है कि तभी ठकुराईन आती है कमरे से और कहती है "अरे लखिया ये मेरा बेटा आदर्श है विदेश से पढकर आज ही आया है ।"

आदर्श भी लखिया को देखता है एक नजर फिर लैपटॉप पर काम करने लग जाता है ।
लखिया छोटे ठाकुर को देख हैरान हो जाती है सोचती है हाय दइया कितने खूबसूरत हैं ठाकुर साहब बहुत ही किस्मत वाली होगी वह छोरी जिससे ठाकुर साहब का ब्याह होगा । फिर लखिया कामों में लग जाती है ।
शाम को सारा काम करके लखिया जब दीए जलाती पूरी हवेली में तो ठाकुर साहब बहुत खुश होते आज ठाकुर साहब लखिया को देखकर तारीफ़ भी कर देते हैं "बहुत सुन्दर लग रही हो लखिया ।"
लखिया लजा जाती । रात को जब घर जाने लगी लखिया तो ठकुराईन ने उसे प्रसाद और कुछ पकवान दिए । हवेली से लखिया का घर दूर था थोड़ा सुनसान पड़ता था आज लखिया को कुछ भय सा हो रहा था पर पटाखों और दीयों की रौशनी में जा रही थी कि तभी किसी ने लखिया का मुँह बंद कर दिया उसे एक ओर ले गया । लखिया छटपटाती रही वह आदमी चेहरा ढक रखा था अपना मगर बायें हाथ में काला और मटर के इतना बड़ा मस्सा था । लखिया को कुछ समझ न आ रहा था आखिर ये ऐसा क्यों कर रहा है । लाख बचाने की कोशिश की खुद को लखिया मगर बचा न पायी । रोती सिसकती लखिया घर पहुंची तो अम्मा ने पूछा क्या हुआ लखिया फिर > दीपावली की रात - भाग - 2

Radha Yshi

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