आंखों की कहां कोई सुनता है,अब तो लफ़्ज़-ए-गुस्ताख़ी होती हैं।
दिल कुछ कहता है,पर लफ़्ज़ कुछ और बयान होते हैं।

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मन की बातों का कोई मोल नहीं रहा,अल्फ़ाज़ सब सुनाने लगें हैं।
जीस्मों की भाषा सब बोलने लगें हैं,तभी तो लफ़्ज़-ए-गुस्ताख़ी होने लगी हैं।

पढ़े - दीवानगी का सुरूर - 1

तुम ख़ुद नज़र घुमाके देख लो,सब अपनी मर्ज़ीयों के मुताबिक़ यहां जीता हैं।
दिल हों,दिमाग़ हों या फ़िर जिस्म हों,सभी लफ़्ज़-ए-गुस्ताख़ी करते हैं यहां।

R J Nakum

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