उलझनें . . .

यू जिंदगी की उलझनों में
हम उलझते चले गये।
न जीने की चाह है
और न मरने का डर।
यू जिंदगी की उलझनों में
हम उलझते चले गये।।

घर से चले थे हम तो
खुशियों की तलाश में..२।
गम राह में खड़े थे
वो ही साथ हो लिए..२।
गम और उलझनों ने मुझे
लेखक बना दिया।

यू जिंदगी की उलझनों में
हम उलझते चले गये....।।
जिंदा होते हुए भी
हम मर जैसे ही है।
न जीने में है हम
और न मरने में ही।

अपनी की गलतियों की
अब सजा भोग रहे।
यू जिंदगी की उलझनों में
हम उलझते चले गये।।
होठो को सी चुके तो
जमाने ने ये कहा।

क्यों चुप हो जनाब
अजी कुछ तो बोलिये।
पहले तो बहुत गाते
और लिखते थे तुम।
अब क्या हो गया है
तुम्हें कुछ तो कहो।।

यू जिंदगी की उलझनों में
हम उलझते चले गये।
न जीने की चाह है
और न मरने का डर।
यू जिंदगी की उलझनों में
हम उलझते चले गये।।

Sanjay Jain

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