जूटी थी भीड़ सड़क पर भारी
हुजूम दूर से दिखाई पड़ा था
चल कर उस भीड़ का हिस्सा बनने
मैंने भी गाड़ी रोक दिया था।
आती-जाती कारें, पैदलपथ राही
कुछ झाँकते, कुछ ठहर जाते थे
जलसा जैसे कोई लगा हो
लोग लौट -लौट मजमा लगाते थे
इधर-उधर सबको हटाती ठेलती
मैं भी भीड़ को चीर गई
बीच पहुंच जो दृश्य देखा
मैं अंदर तक सिहर गई।
पड़ी थी घायलों की देहे कई
यहां वहां लहू की धारें थी
चीखते बिलखते आवाजों से
गुँज रही आबोहवाएँ थी ।
कलेजा काँप उठा रुदन से
रक्त देख गस्ती सी छाई थी
बढ़ते देख जमावड़ा लोगों का
कुछ ढा़ढस -सी बँध आई थी
सारे लोग गोलबंद खड़े थे
सुन कातारें ना तनिक भींचे थे
लगता था अंधे-बधिरों की
बस्ती में हताहत आ गिरे थे ।
कुछ आपस में चर्चा करते
कुछ तस्वीरें मोबाइल से खींचते थे
हद तो तब हो गई भैया
वीडियो बनाने को कुछ एंगल ढूंढते थे ।
ना किसी को कुछ भी पड़ी थी
ना करुणा का कोई अंश था,
लगता था संवेदनहीन मनोज ने
भीड़ का नकाब पहना था ।
आहतजन भू पर बेबस से
मदद के मोहताज थे
संवेगविहीन मानुष मूरत से
उनकी वेदना से बेजार थे।
झेल ना पाई ऐसी पशुता को
हृदयकी दुर्गा जागी थी
प्राण बचाने सारी पीड़ित का
शक्ति न जाने कहां से आई थी।
तमाशबीनों की करके अनदेखी
स्वयं को मैंने सज्य किया
झट से हाथ लगा घायलों को
गाड़ी में अपने प्रविष्ट किया।
देख हौसले को मेरे कुछ के
दीक् में छाई शर्म की लाली
लगा हाथ मेरे संग उन्होंने
कष्टकों को राहत पहुंचाई थी
वक्त पर हुआ जीवन रक्षण तो
प्राण बचने की आस जग आई थी
सारे जन मिल प्रयास करें तो
दुर्घटना में संभव प्राणरक्षाई है
मृतकों की संख्या घट जाए
चिराग घरों के ना बुझ पाए।
Geeta Kumari
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