ये सफ़र . . .


ये सफ़र हैं विद्यार्थियों का,विद्यालय से विश्वविद्यालय तक का।

ये सफ़र निरन्तर बढ़ती चली जाएगी,
संघर्षों से ही सपने साकार होगी।

आज जब निकली थी सैर को,ज़हन में आया , एक झलक देख लूं, अपने प्राथमिक विद्यालय को।
बचपन की यादें तर सी गई, मेरी पलकें थोड़ी भींग सी गई।

प्रथमतः आए थे पापा छोड़ने स्कूल ,
मैं बहुत ही रोई थी, थोड़ी सहमी थी।

के.जी की मैडम ने  लगा अपने सीने से,
प्रेम से मुझे पुचकारा था,मेरे माथे को सहलाया था।

उस दिन मैंने
एक और मां को पाया था।


नये-नये मित्रो से परिचय हुआ था,
अपने जीवन का अहम हिस्सा बनाया था।

आज जैसे पुनः मन किया,उठाओ बस्ता अपना,आ जाऊं यहां,रोते हुए नही , खिलखिलाती हँसी के साथ।
कुछ और आगे चली,दिखा मुझे कोने में बरगद का पेड़,जिसके लटों से झूल आसमां को छूने की कोशिश करते।

ये सफ़र आगे बढ़ा,प्राइमरी से सेकंडरी,सेकंडरी से उच्च विद्यालय,उच्च विद्यालय से महाविद्यालय,और अब महाविद्यालय से विश्वविद्यालय तक चला।
आकर विश्वविद्यालय में,
खुद से मैं रु-ब-रु हुई।

अबतक तो मुझे मात्र मिला था आकार,
गीली मिट्टी की बनी थी मैं,जिसका कोई वज़ूद न था।
जो थोड़े से प्रहार से,
बिखर सकता था।

शिक्षको ने सही मार्गदर्शन किया,
चेतना का संचार किया।


उनके ज्ञान के तपन ने ,
मेरे आकार को  साकार किया ।

मन में साहस की कमी थी,
हरवक्त रहती थी डरी-डरी सी।

कुछ करने की चाहत तो थी,
पर, वो जज्बा न था।

जब मिली विश्वविद्यालय के दोस्तो से,
काफ़ी बदलाव मुझमे भी आया।

अब हो कोई भी परिस्थितियां,
साहस से सामना करने को तत्पर हूँ रहती।

इन्हें देख मन में कुछ करने की चाहत जगी,
इसलिए आज मैं हूँ यहां खड़ी।

ये सफ़र अनोखा हैं,
विद्यालय से विश्वविद्यालय का।


Parwati Pandit

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