षष्टम स्कंन्ध में पुष्टि अनुग्रह ,,जी भगवद अनुग्रह के पश्चात विकार वासना को नष्ट करके सदुपयोग से पुष्ट होता हैं।
प्रभु की सेवा व स्मरण में तन्मयता से जीव पुष्ट होता हैं।
ईश्वर सम है पर माया के कारण विषम दिखाई देता है।
परमात्मा को जीव तन्मय होकर भजे,,किसी भी भाव से एकाकार चाहिये।


प्रेम या शत्रु भाव,,द्वेष ,भय या स्नेह भाव हो,,तन्मयता से ही सदगति सम्भव हैं।
जय विजय पहले जन्म में हिरण्याक्ष व हिरण्यकश्यप बने थे।
दूसरे जन्म में रावण व कुम्भकर्ण बने,,तीसरे में शिशुपाल व दन्तवक्र बने।
वराह भगवान ने हिरण्याक्ष का वध,नृसिंह भगवान ने हिरण्यकश्यप का वध किया था।


हिरण्य,,सोना,,अक्ष ,,आँख,, अर्थात,जिसकी आँख सदा सोने पर लगी रहे।
हिरण्यकश्यप अर्थात,,जिसे सोने को देखकर अहंकार पैदा होता रहे।
भक्ति के नौ प्रकार हैं,,, भगवान के नाम ,गुण व लीलाओं का श्रवण,,
कीर्तन ,स्मरण,चरण सेवा,पूजा,अर्चना,वंदन,दास्य संख्य,, आत्म निवेदन।

भगवान का ध्यान करते हुए तन्मय होने से ,,जब जगत नहीं दिखता,,तब उसे भगवान दिखते हैं।
कथा कीर्तन से मन की अशुद्धि धुलती हैं,, हृदय विशुद्ध होता हैं,,
तालिया बजा कर कीर्तन करने से मन शुद्ध हो जाता हैं।
दान ,तप ,यज्ञ,शौच व्रत के साथ निष्काम प्रेम भक्ति से प्रभु प्रसन्न  होते हैं।



मनुष्य दुःख का कारण देहाभिमान है,, शरीर घर है,, देहली ,,जीभ है 
अभिमान को मारना हैं तो जीभ पर ठाकुर जी का नाम रखो।
प्रह्लाद सत्व गुण है, हिरण्यकश्यप तमोगुण है।भगवान सत्वगुण की रक्षा के लिए तमोगुणी का वध करते हैं।
प्रभु सर्वव्यापी हैं प्रह्लाद की भक्ति व प्रेम के कारण निराकार प्रभु साकार बने,,सूक्ष्म रूप त्याग कर स्थूल रूप धारण किया।

जगत को सुखी बनाने के दो अमृत हैं,, नामामृत व कथा अमृत।यह स्वर्ग के अमृत से भी श्रेष्ठ हैं।
जब मन में विषय या पाप का प्रवेश हो तब ये पाप को भस्मीभूत कर जीवन को शुद्ध करते हैं।
जब जब मन में पाप उभरे ,आंखों में विकार आये,,इन दो अमृतो का पान करना चाहिये


सांसारिक विषयों के पान से मन 
विकृत हो जाता है,,
भगवान के स्वरूप व नाम का चिंतन करने से मन सुधर सकता हैं।
भक्ति के छह साधन हैं,, प्रार्थना,, सेवा पूजा,,स्तुति,,वंदन,,स्मरण,,कथा श्रवण,,,।
भगवान के दण्ड में भी करुणा हैं,, वे जिन दैत्यादि को मारते हैं,, उनका उद्धार भी करते है।


मनुष्य का सच्चा मित्र धर्म है।सुखों का साधन धन नहीं,, धर्म हैं।धर्म के तीस लक्षण हैं,,
धर्म का प्रथम लक्षण ,,सत्य है,, अंतिम आत्म समर्पण है।
धर्म की गति सूक्ष्म है,, पवित्रता ,,तपस्चर्या, तितिक्षा, 


अहिंसा, ब्रह्मचर्य, त्याग,,स्वाध्याय, आर्जवम, अर्थात,,स्वभाव को सरल करना,,सन्तोष ,समदृष्टि,, मौन।
आत्म चिंतन,,पंचभूतों में ईश्वर, कथा श्रवण,स्मरण,सेवा,पूजा,नमस्कार, दास्य,,सख्य,आत्म समर्पण,,ये तीस लक्षण धर्म के हैं।
भेदभाव न करना,,निंदा न करना भी उत्तम गुण हैं।


परमात्मा के लिए सभी सुखों का न्यास,, त्याग ,,ही सन्यास है।
दान से धन की शुद्धि होती हैं।कामनाओं का त्याग करे।क्रोध को जीतने का उपाय करें।
सतगुरु की आज्ञा का पालन करें।गृहस्थी को इंद्रियों रूपी घोड़ों पर नियंत्रण रखना चाहिए।


शरीर रथ है,, इंद्रियां ही इसके घोड़े हैं,, मन उन इंद्रियों रूपी घोड़ों की बागडोर हैं,,।
विषय ही इन घोड़ो को ले जाने का मार्ग हैं,,
बुद्धि रथ की सारथी हैं,, धर्म व अधर्म इसके पहिये हैं,,
प्राण इस रथ की धुरी हैं,, चित्त इन घोड़ों को बांधने का घर हैं,,


रथ में बैठने वाला जीव अहंकार है 
ॐ कार धनुष है,, शुद्ध जीव बाण है,,पर ब्रह्म तक पहुँचना व उसे प्राप्त करना लक्ष्य हैं।
राग द्वेष ,लोभ ,शोक ,मोह ,भय ,मद ,मान अपमान ,असूया,माया ,हिंसा,मत्सर,रजोगुण, प्रमाद ,सुधा,,,निद्रा,,आदि शत्रु हैं।


वेद में दो प्रकार के कर्म हैं,,प्रवृत्ति और निवृत्ति।।
प्रवृत्ति कर्म से संसार  में वापस आना पड़ता हैं,,
निवृत्ति कर्म से मोक्ष प्राप्त होता हैं,,।
अभिमान त्याग एकांत में हरि कीर्तन,,से कलि के दोषों का विनाश होता हैं,,।
धर्म से धन उपार्जन से गृहस्थी संसार रूपी  सागर को पार कर सकता हैं।

हरे राम ,हरे कृष्ण,,श्री मन नारायण, नारायण,नारायण।

Neelam Vyas

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