*उजड़ी उजड़ी बस्ती बिखरे पत्थर देख रहा हूं,*
मैं भी जालिम का ही लश्कर देख रहा हूं।
*सोच में हूं कब बदलेगा मुकद्दर गरीबों का,*
धनवानों के हाथों में जो में खंजर देख रहा हूं।
*भूख गरीबी में उनको बेघर देख रहा हूं,*
हीरे मोती वाली धरती को मैं बंजर देख रहा हूं।
*फटे लिवास बेरोजगारों की कतारें ये कैसा मंजन,*
सियासती चेहरों में मैं अजगर देख रहा हूं।
*नक़ली दूध, ज़हरीला खाना, क़साई डॉक्टर,*
बाबू मैं भी तेरे तीनों बंदर देख रहा हूं।
*महंगाई की मार भ्रष्टाचार की लाठी,*
हाल गरीबों के क्यो इतने बदतर देख रहा हूं।
*कांटी जो ज़ुबान उसने तो कलम कहां गूंगी है,*
*शाहरुख़* तुझमें पौरस भी, तुझमें सिन्द्र देख रहा हूं।
*शाहरुख मोईन*
अररिया बिहार
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें