रूठ जाये . . .

इस बात का डर है,
वो कहीँ रूठ जायेंI
नाजुक से है अरमा मेरे,
कही टूट जायें।।

 
फूलों से भी नाजुक है,
उनके होठों की नरमी I
सूरज झुलस जाये,
ऐसी सांसों की गरमी I
इस हुस्न की मस्ती को
कोई लूट जाये I
इस बात का डर है,
वो कहीँ रूठ जायें I
 
चलते है तो नदियों की,
अदा साथ लेके वो।

घर मेरा बहा देते है,
बस मुस्कुराके वो I
लहरों में कहीँ साथ,
मेरा छूट जाये I
इस बात का डर है,
वो कहीँ रूठ जायें I
 

छतपे गये थे सुबह तो,
दीदार कर लिया I
मिलने को कहा शामको,
तो इनकार कर दिया I
ये सिलसिला भी फ़िरसे,
कहीँ टूट जाये।
इस बात का डर है,
वो कहीँ रूठ जायें I
 
क्या गारंटी है की फिरसे,
कही वो रूठ जाये।
मिलाने का बोल कर
कही भूल जाये।
हम बैठे रहे बाग़ में,
उनका इंतजार करके।
इस बात का डर है,
वो कहीँ रूठ जायें I

Sanjay Jain

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

इस पोस्ट पर साझा करें

| Designed by Techie Desk