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अनुश्री द्वारा लिखित। प्रस्तावना:- हमारे देश मे समस्याओं के बादल नित्य उमड़ते और बरसते रहते है। इनमे हमारे राष्ट्र और समाज की घोर क्षति होती रहती है। सती-प्रथा व जाति-प्रथा की तरह दहेज-प्रथा भी हमारे देश-समाज की एक ज्वलंत प्रथा है, जिसके समाधान के लिए बहुत कार्य किये जाने पर भी कुछ नही हुआ। ढाक के तीन पात के समान सारे समाधान के प्रयास ज्यों के त्यों रह गए।
दहेज-प्रथा का प्राचीन स्वरूप:- दहेज-प्रथा का इतिहास क्या है? यह कहना बड़ा कठिन है। इस प्रसंग में इतना तो अवश्य कहा जा सकता है कि दहेज-प्रथा बहुत पुरानी प्रथा है। त्रेता युग मे भगवान श्रीराम जी को राजा जनक ने बहुत धन-द्रव्य आदि दहेज-स्वरूप भेंट किये थे। इस के बाद द्वापर युग मे कंस ने अपनी बहन देवकी को बहुत से धन, वस्त्र आदि दहेज के रूप में दिए थे। फिर कलयुग में तो इस प्रथा ने अपने परों को बढ़ाकर चकित ही कर दिया है। परिणामस्वरूप आज यह अत्यधिक चर्चित ओर निंदित राष्ट्रीय समस्या बनकर , हर प्रकार के समाधान को ठेंगा दिखाने लगी है।
दहेज का आधुनिक स्वरूप:- दहेज का आज वह स्वरूप नही रहा, जो शताब्दी पूर्व था। दूसरे शब्दों में दहेज के स्वरूप आज बहुत ही विकृत और कलुषित हो चुका है। आज दहेज एक व्यापार या पूंजी के रूप में स्थापित होकर अपनी सभी प्रकार की नैतिकता और पवित्रता को धूमिल करने से बाज नहीँ आ रहा है। दहेज के मुँह आधुनिक युगीन सुरसा-सा सदैव खोले हुए सारे दान-दक्षिणा को निगलकर भी डकार लेने वाला नहीं है।
इसे तनिक न तो धैर्य है। न कोई लज्जा-ग्लानि है। यह इतना वजनिय और असहाय है। कि इसकी अधिक देर तक उपेक्षा नही की जा सकती है। इस प्रकार दहेज इस युग को बहुत बड़ी समस्या और विपदा बनकर मानवता का गला घोंटने के लिए अपने हाथ पैर पसरते हुए बहुत कष्टदायक सिद्ध हो रही है।
दहेज के अर्थ:- दहेज के कई अर्थ हैं। विवाह के अवसर पर कन्या-पक्ष की और से वर-पक्ष को दिया जाने वाला, धन, सामान आदि। इस दान या उपहार का प्रचलन या रिवाज को ही, दहेज-प्रथा के नाम से आज के युग में अधिक चर्चित ओर प्रचलित है।
दहेज के कारण:- “दहेज प्रथा” का कारण क्या है? इसके उत्तर में यह कहा जा सकता है। कि आज हमारा समाज पुरुष प्रधान समाज हो गया है। इस आधार पर आज नारी को पुरुष के सामने हीन और उपेक्षित समझा जाता है। नारी की इस हीनता को दूर करने और उसे पुरुष के समकक्ष सम्मान दिलाने के लिए पुरुष को नारी पक्ष की और यथाशक्य दहेज-(दान) दिया जाता है। दहेज देने की इस प्रक्रिया में स्वार्थ ने ऐसी घुसपैठ कर ली है कि आज दहेज (दान) तो एक बली-देवी बन गया है। इसलिये भारत की बेटियाँ आए दिन दहेज की बलि चढ़ती जा रही है।
दहेज का दुष्परिणाम:- निःसंदेह दहेज-प्रथा के दुष्परिणाम है। ये एक नहीं, अनेक है ये विविध ओर बहुरंगी है। इनकी प्रतिक्रिया भी परस्पर अलग-अलग है। दहेज के अभाव में कन्या के पिता के साथ-साथ कन्या का भी जीवन बड़ा ही दुविधापूर्ण और तनावग्रस्त है। वर-पक्ष वाले इस स्थिति के प्रति सहानुभूति बरतने के बजाय बड़े ही कठोर और अमानवीय हो जाते है। वे अपनी मांग रूपी द्रोपदी चिर को बढ़ाते हुए नहीं थकते है। यही नहीं इसके लिए वे कभी और कुछ भी कदम उठाने में किसी भी भयंकर परिणाम की न चिंता करते है और न भय-संकोच, फलतः आये दिन वे दहेज की खूनी होली खेलते हुए अपनी पशुता का नंगा नाच नचाते हुए नहीँ थकते हैं।
इससे समाज के मनचले और अमानवीय के पक्षधरों को बल मिलता है। वे भी इस प्रकार की पशुतापन पर उतरने की न केवल सोच रखने लगते है, अपितु वे दूसरों की भी पीठ थपथपाते हुए इस प्रथा रूपी जवालामे घी का काम करने की बहुत बड़ी भूमिका निभाने लगते है। फलतः आज दहेज-प्रथा के समर्थकों का प्रतिशत दहेज प्रथा विरोधियों की तुलना में अस्सी प्रतिशत है। यही कारण है कि आज दहेज के अभाव में योग्य लड़की बहुत दिनों तक कुंवारी रह जाती है। दूसरी बिना दहेज के योग्य, सुंदर, सुशिक्षित ओर समपन्न लड़का विवाह नही करना चाहता है। फलतः अयोग्य वर के साथ योग्य कन्या को विडम्बनापूर्ण जीवन-सूत्रों में बांध देना आज के माता-पिता, बन्धु-बांधवों की घोर विवशता बन गयी है। इससे वर और कन्या का विवाहित जीवन किसी प्रकार सुखद न रह कर अत्यंत दुखद और निरुपाय बन जाता है। मुंशी प्रेमचंद की “निर्मला” दहेज प्रथा का सच्चा उपन्यास है। इस उपन्यास की नायिका ‘निर्मला’ दहेज के अभाव में बूढ़े तोताराम के साथ ब्याह दी गई। दुष्परिणाम यह हुआ कि उपन्यास का नायक तोताराम की हरी-भरी जिंदगी श्मशान में बदल गई। स्वयं निर्मला भी तनावग्रस्त होकर चल बसी।
दहेज के बिना यदि किसी कन्या का विवाह हो भी जाये, तो आये दिन परिवारजनों के ताने सुनने पड़ते है। सास ससुर सहित अपने पति के कठोर से कठोर ओर असहाय से असहाय दुर्व्यवहार झेलने के लिए बाध्य होना पड़ता है। यही कारण है कि कभी कोई वधु जलाकर मार डॉली जाती है तो कहीं कोई युवती फांसी का फंदा लगा लेने के लिए विवश हो जाती है। अधिक कष्ट न झेलपाना कि स्थिति में कभी कोई विवाहिता डूब कर मर जाती है तो कभी कोई रेल के नीचे कटकर अपनी जीवन-लीला समाप्त करना ही अपने जीवन की यातनाओं से निजात प्राप्त करना उचित समझती है। कुछ धन-पशुओं के बिगड़ैल बेटे पहले धनी बाप की बेटी से शादी कर लेते है। फिर उससे धन ऐंठ कर उसे मार डालते है, ताकि फिर दुबारा ऐसे ही बाप की बेटी से विवाह करके धन हड़प सके। यदि कोई कुलीन कन्या अपने दहेज-लोभी पति को छोड़कर अकेला जीवन व्यतीत करना चाहते है, तो समाज उसे बुरी दृष्टि से ही देखता है। इस प्रकार दहेज से तो नारी को ही बारम्बार दलित-पीड़ित होना पड़ता है।
उपसंहार:- दहेज मानवता का बड़ा कलंक है। उसे धो डालने के लिए समाज और सरकार(शासन) का परस्पर सहयोग अपेक्षित है। समाज की भूमिका, समाज-सेवी संस्थाओं, महिला संगठनों आदि के द्वारा महत्वपूर्ण हो सकती है। दहेज-पीडित व्यक्तयों, विशेषकर शिक्षित कन्याओं का इस प्रथा का स्वयं करने के साथ-साथ उसे जड़ से उखाड़ने के लिए जन-जागृति-चेतना फैलानी चाहिए। इस तरह का अभिमान साहित्यकार और कलाकार सहित समाजिक-संगठनों से भी अपेक्षित होगा। सरकार(प्रशासन) की भूमिका दहेज-विरोधी अधिनियम “दहेज निषेध” को कठोरता पूर्वक लागू होनी चाहिए। इसकी उपयोगिता दहेज-समर्थकों या दहेज-लोभी व्यक्तियों कठोर सजा देने और जुर्माना लेने से होगी। “प्रेम-विवाह” इस भयावह प्रथा की जडों को आसानी से उखाड़ कर फेंक सकता हैl धन्यवाद। जय हिंद।
अत्यंत मार्मिक और तथ्यात्मक।। ����
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